Tuesday 30 July 2013

ख्वाहिश

हमारी घुलती हुई आवाजें सुनकर
 बौखलाई बारिशें नही चाहती 
कि मैं आ सकूं तुम तक 
नजराने लिए मेंहदी के सब्ज पत्तो के 
अपनी उँगलियों के पोरों पर 
कई बार 
खुशबुएँ हलकान किये होती हैं मुझे 
बाएं कान के नीचे 
उस पनीले रंग के चुम्बन की 
तब मैं छिप जाना चाहती हूँ 
तुम्हारे बाजुओं में
अपने सपनों की कसीदाकारी करने को 
पर 
ये बारिशें
हर बार 
बना देती हैं नया आबशार 
साजिशों का 
जो झरता है 
तुम्हारे इश्क की ऊंचाइयों से 
कितनी काई जमा हैं 
इन ऊंचे पत्थरो पर 
मन के शोर सा आता है 
पानी 
हाहाकार करते हुए  
फिर नही 
टिक पाते 
मेरे सूने पैर 
और मैं छिटककर 
चूर चूर हो जाती हूँ
फिर भी नही बन पाती 
इस लायक 
कि 
कम से कम 
तुम्हारी मछलियाँ खा सके मुझे...................