Friday 17 July 2015

डर है... तो डराएगा!






     डर का काम है डराना. जितना डरोगे उतना डराएगा. जितनी जगह दोगे उतना फैलेगा. दिल वैसे भी बड़ी तंग जगह होती है. ऐसे में डर जैसा अटाला क्यूँ रखना? कहीं पढ़ा था, शायद ओशो की किसी किताब में “दुःख से बचने जैसा कुछ नहीं है, क्योकि दुःख एक भ्रान्ति है, एक मान्यता है. उससे डर-डरकर हम उसे हव्वा बना देते हैं.” डर सौ दुखो का कारण है. दुःख नहीं चाहिए तो डर भी ना पालें.
आपको लग रहा होगा कि आज ये प्रवचन क्यूँ ? प्रवचन नहीं है, डर से निजात की एक कोशिश है... और कोशिश के बाद मिला एक अनुभव है. पिछले दिनों कई महीनो तक मुझे लगा जैसे मैं हमेशा के लिए पीछे छूट जाउंगी, अकेली ... हमेशा के लिए अकेली ही रह जाउंगी. कुछ हद तक सोच ने असर दिखा भी दिया. इस डर ने एक और डर पैदा कर दिया.   अविश्वास का डर... या नौकरी तक गँवा देने का डर... या कुछ भी न कर पाने का डर. और दुर्भाग्य देखिये की ऐसा सोचते ही कई बार मेरी दोस्ती, मेरी नौकरी दोनों ही बाल-बाल बची.
अगर आप निजी जीवन में डरते हैं, तो फिर मन का चैन गँवा बैठते हैं. अगर कहीं  आप अपनी प्रोफेशनल लाइफ को लेकर डरते हैं. आप कहीं खुश नहीं रह सकते. सब कुछ जैसे एक धुंध में समा जाता है, डर का धुंध. धुंध में सड़क से गुजरना मुश्किल होता है. रफ़्तार से गुजरना तो और भी मुश्किल. एक तो धुंध, तिस पर रफ़्तार... ऐसे में टकराने का डर तो होता है  और टकराने में चकनाचूर होने का भी. होते हैं, हो जाइए... चकनाचूर!  डरना छोड़ दीजिये. अच्छा भी , हमेशा वो नहीं होता जो आपने सोचा होता है, तो बुरा भी, हमेशा वो ही नहीं होगा, जो आपने सोच रखा है.
मैंने डर से निजात  पाना सीखा पर एक गलती कर दी, मैंने अपनी धुंध में अपनी रफ़्तार कम कर दी थी. बस ... न चूर हुई, न पार हुई. अटक गयी. जब भी डर सामने आये तो उसे बस बहलाना नहीं है. मुह पर कसकर एक जोर का मुक्का मारना है. हर आती सांस के साथ खुद को खुश करना है. यकीन  मानिए आपके लिए आपसे बेहतर कोई और हो ही नहीं सकता, अपना साथ दीजिये. अपने साथ का आनंद महसूस करिए. दिल की उस तंग जगह को प्यार से भरिये. डर दुःख लाता है और प्यार ख़ुशी.
... और याद रखिये, कि डर होगा तो डराएगा न?

Tuesday 7 July 2015

हर मलाला को चाहिए उसका हक़

सन्नाटे यहां बोए गए थे, डर उगाया गया था, नफरतें फूलने लगी थी...इंसानों के बीच और हर एक की सांसों में बारूद भर देने की कोशिश जारी थी। मासूम लोग अपने अक्स से भी बचते थे कि कहीं इंसानी शक्ल में मानव बम हुआ तो ..? लोग दरवाजे से बाहर अपनी रिस्क पर निकलते हैं लौटे तो लौटे...ना लौटे तो घर में एक मातम और सही। हर कोई जैसे बारूद के ढेर पर जीता है। मौत जैसे पीछे-पीछे रेंगती है, स्वात की वादियों में...स्वात पाकिस्तान का एक खूबसूरत जिला। बेयकीनी के दौर में एक कोशिश ने सांस ली, जिसका नाम है मलाला... मलाला युसुफज़ई !!! ‘चलो किताबें और कलम उठाओ. ये हमारे सबसे ताकतवर हथियार हैं. एक बच्चा, एक शिक्षक, एक किताब और एक कलम ही दुनिया को बदल सकते हैं. शिक्षा ही एकमात्र हल है.’ ये मलाला के शब्द हैं.


विचार गोलियों से नहीं मरते
मलाला सिर्फ मलाला ही नहीं है, गुल मकई भी है। 'गुल मकई' वो लड़की है जिसने दुनिया को बताया कि उसके आसपास क्या घट रहा है? कितनी मुश्किलें हो रही हैं उसे अपना स्कूल जारी रखने में? गुल मकई ने अपने डर, अपनी इच्छाएं, अपनी जिद और अपनी जरूरतें लिखीं।
तालिबानी बस इतने में ही खौफ खा गए और उसके दिमाग को गोली से उड़ाने की कोशिश की। मगर उन्हें नहीं पता था कि विचार गोलियों से नहीं मरते इसलिए मलाला भी बच गई। उसका बचना जरूरी था...जरूरी था उसका लिखते रहना अपनी सरजमीं के लिए... और बाकी और लड़कियों के लिए...! उसका बचना इसलिए भी जरूरी था क्योंकि वो मलाला थी..जिन्दा रहने के लिए एक ही वजह काफी थी उसका मलाला होना...।
गुल मकई ने बहुत कुछ कहा और बहुत कुछ अनकहा रह गया, जो रह गया है उसके लिए सैकड़ों मलाला चाहिए और हर मलाला को स्कूल जाने का हक चाहिए। जिससे हर मलाला अपनी बात कह सके, ऐसी कितनी ही मलालायें हैं, जिनकी ख्वाहिशें हसरतें पैदा होने के पहले ही मिट्टी में दबा दी जाती है, कोई ख्वाहिश ऐसी हो जो मारी न जा सकें तो बदल दी जाती है, कुछ शर्तें लगा दी जाती हैं। आप भी सोचिए क्या शर्तों के घेरे में सपने सांस ले पाते हैं भला।
मलाला जानती है और हम भी...कि हर लड़की स्कूल जाने के लिए अपने भेजे पर गोली नहीं खा सकती, और खाना भी नहीं चाहिए। इसलिए मलाला की कोशिशें आज भी जारी हैं। नोबेल शांति समेत सैकड़ों पुरस्कार मलाला की झोली में हैं। मलाला एक नाम था, अब मलाला एक आवाज है, एक कोशिश है। हर उस लड़की के लिए जो पढ़ना चाहती है। हर उस लड़की के लिए जिसे पढ़ना चाहिए और हर लड़की को वास्तव में पढ़ना भी चाहिए।
जितनी बड़ी उतनी ही गंभीर बात
मलाला ने सिर्फ अपनी बात कही और इसे सब तक पहुंचाने के लिए यूएन ने 12 जुलाई को 'मलाला दिवस" के तौर पर मनाए जाने की घोषणा कर दी है। यह छोटी-सी नजर आने वाली बात कितनी बड़ी है, और जितनी बड़ी है उतनी ही गंभीर भी है। कितनी लड़कियां आज भी कभी परिवार, कभी गरीबी, कभी सुरक्षा के नाम पर दरवाजों के पीछे बंद कर दी जाती हैं। आज मलाला के नाम पर ढेरों फंड और योजनाएं चल रही हैं, जो लड़कियों की बेहतर शिक्षा के लिए काम कर रही हैं।
क्या इन सारी योजनाओं के चलते हर लड़की को उसका वो हकमिल रहा है, जो उसे मिलना चाहिए? या हिंदुस्तान को भी एक मलाला की जरूरत है, शायद एक नहीं कई मलालाओं की। मलाला दिवस तो बस एक बहाना भर है अपने आप को टटोलने का क्या हम अपनी बेटियों को वो मुस्तकबिल दे रहे हैं जिसकी वो हकदार हैं? क्या 'सेल्फी विद डॉटर" से भी आगे कोशिशें जारी हैं? हमारा देश, हमारी सरकार और इन सबसे भी पहले हम कितने जागरूक हैं अपनी बेटियों को लेकर...?
जरूरत है कोलाहल की
बेशक! चुप्पी तो टूटी है है, मगर अब तक सन्नााटा गया नहीं है, जरूरत है शोर की... कोलाहल की। मलाला वो पहली आवाज है जो हर लड़की को, हर हाल में उसका हक देने की बात कहती सुनाई देती है। मलाला हमें याद दिलाती है कि जब भी औरत ने कुछ कहा है सुनना ही पड़ा है सबको... पर क्या हर औरत, हर लड़की अपने मन की बात कह पाती है? नहीं...हजारों बार नहीं...इस अनकहे को सुने जाने की जरूरत है। हर बेटी को, हर स्त्री को उसकी हदें तोड़ने की जरूरत है। 
...बाकी अब मलाला दिवस तो हर साल आएगा, शुभकामनाएं! 

 08 जुलाई 2015 को नायिका, नई दुनिया में प्रकाशित.

पुलक

हर बार की तरह, इस बार भी
उतनी ही ढीठ हैं बारिशें
सब पर गिरती हैं, मंदिर पर, मकान पर
खेत पर, सड़कों पर, मुझ पर
सब भींग जाते हैं, बिलकुल तरबतर
सूखी रह जाती हूँ तो सिर्फ मैं... और शायद मेरा मन. 

...आभास!

कभी कभी कहानियाँ जिंदगी की तरह लगती हैं.
कभी कभी जिंदगी कहानी की तरह लगती है.
कभी कभी कहानी औरत की तरह लगती है. 
कभी कभी औरतें लम्बी रातों की तरह लगती हैं. 
कभी कभी राते परछाई की तरह लगती है.
कभी कभी परछाई अपनी ही तरह लगती है.
जब कभी किसी और का होना अपनी तरह लगता है.
मुझे फिर कहानी जिंदगी की तरह लगती है और
जिंदगी कहानी की तरह लगने लगती है...!

स्त्री ने रचा अपना संसार

जाने कब से चुप्पियाँ आस पास ही टहल रही थी. कोई जानता ही नहीं था और अगरजानता भी था तो समझने के लिए तैयार नहीं था. इस ‘गोले’ की आधीआबादी के पासकहने के लिए क्या है? सुनाने के लिए क्या है? बजाय इन सब के, ऊपर के दर्जे परखड़े होकर वो सिर्फ झांकते रहे.उन्हें सिर्फ देखने के में रूचि थी जबकिस्त्रियाँ सुनी जाना चाहती थीं, हमेशा से. किसी कहानी की तरह. हालाँकि वोकिस्सों में हमेशा रहीं मगर एक किरदार की तरह, क्यूंकि कहानी तो हमेशा नायकोंकी हुआ करती हैं.

उस दिन सबसे ऊँची पायदान के पुरुषों के चेहरे का रंग उड़ गया. जब उसने कहा उसनेकलम उठा ली हैं. और घोषणा कर दीकी वो बस एक किरदार नहीं है. जो कहानी उसकीनहीं वो उस कहानी का हिस्सा भी नहीं. इसलिए अब खुद कहानीकार है, अपनी कथा केसाथ और उसकी नायिका भी. 

उसने आह्वान किया शब्दों का, कलम में शब्द उतरे औरउसने गढ़ा अपना भाव संसार.परम्पराएँ टूटी तो पगडंडियाँ बनीं. पहले तो कागजों पर आज़ादीपाई. उसने लिखादोयम शिक्षा से छुटकारा चाहिए. उसने लिखा घरेलू डर उसेडराते हैं. उसने लिखाजलन और प्रेम, जुल्म और बदला यहाँ तक की अपराध और सजा भी. उसके लिखते रहने काअसर हुआ और मंच पर बराबरी से बैठने की हैसियत पाई उसने. दो सौ साल हुए जबस्त्री ने स्त्री को लिखना शुरू किया था बर्नेट सिस्टर्सके रूप में और येयात्रा जारी है, तब तक जब तक आपये लेख पढ़ रहे हैं, और उसके बादभी. 

स्त्रीलिखने से चुकती नहीं है, इसीलिए स्त्री लिखने से चूकतीनहीं हैं.कलछी कलम साथ चलाते हुए अन्याय के खिलाफ अपना गुस्सा भी लिखा, युद्ध कीआशंकाएं भी लिखी और उस गुबार में पनपा प्रेम भी. लिखना जरुरी है, क्यूंकिकहना जरुरी है और जरुरी है सुना जाना. फिर भी स्त्री लेखनपर आत्मालाप होने काआरोप है. यह आत्मालाप नहीं है, बस एक जरुरत है. सामयिकी, फंतासी, राजनीती,विज्ञान, इतिहास इन सबके साथ सबसे जरुरी स्त्री का लिखा जाना.



१ जुलाई २०१५ को नई दुनिया, " नायिका" में प्रकाशित ...

Wednesday 17 June 2015

तुम २

१...

तेरा ख्याल भी 
तुझसा निकला
बस कभी कभी 
सताने को आता है

२..

टुकड़ों में सही
याद करते हैं तुझे

३..

उधार का इश्क़ है
सूद चुकता नही
मूल पे बात 
आती नही 

४..

मेरी दिल की हरारत 
के लिए
तेरी इक झलक 
जैसे
आधी ‪#‎पेरासिटामोल‬ wink emoticon heart emoticon

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कभी सच में 
कभी भरम में 
रोज़ होते हैं 
एक यात्रा पर 
खुली आँखो से 
कभी यूँ ही
गुनगुनाते या मुसकुराते हुए
अचानक
एक जोड़ी नज़र
आइने सा एहसास दे जाती है
और
बरबस ही
याद आ जाता है कि
हम तो मोती ढूँढने निकले थे...