Tuesday 7 July 2015

पुलक

हर बार की तरह, इस बार भी
उतनी ही ढीठ हैं बारिशें
सब पर गिरती हैं, मंदिर पर, मकान पर
खेत पर, सड़कों पर, मुझ पर
सब भींग जाते हैं, बिलकुल तरबतर
सूखी रह जाती हूँ तो सिर्फ मैं... और शायद मेरा मन. 

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