सरल सृजन
सृष्टि का एक सरल सृजन ....संज्ञा.... अंजलि !!!!!
Sunday 23 March 2014
लावारिस
एक वो,जो पहला
रस्ते में मरा पड़ा मिला
एकदम टुकड़ों में
एक वो,जो दूसरा
उधर से गुजर रहा था
उसे रुमाल में बाँध के घर ले आया है
टुकड़े टुकड़े जोड़कर फिर गढ़कर उसके अस्थिपंजर
और दूर यात्रा पर निकल गया
अपनी नयी प्रेमिका के पास...
उदास मन से लिखी, आशा भरी कविता
पिरोये
कुछ टेसू कुछ गुलमोहर
रौनक लपेटने की भी कोशिश थी
और बसंत का तकाजा भी
आसमान का जिक्र करना चाहा
कुछ परिंदों के रूपक भी दिए
फिर भी उदास मन से लिखी
आशा भरी कविता
सांवली ही नजर आई
जबकि रंग पलकों में ही छिपे थे
वापसी
विशाल
पहाड़ का अवलंबन छोड़ते ही...
छोड़ दी झरनों की संज्ञाएँ भी...
और छिप गयी मिट्टी में, खेतों की ...
फिर यौवन मिला किसलय को...
बड़े दिनों बाद लौटा है बसंत
…
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