Tuesday 7 July 2015

हर मलाला को चाहिए उसका हक़

सन्नाटे यहां बोए गए थे, डर उगाया गया था, नफरतें फूलने लगी थी...इंसानों के बीच और हर एक की सांसों में बारूद भर देने की कोशिश जारी थी। मासूम लोग अपने अक्स से भी बचते थे कि कहीं इंसानी शक्ल में मानव बम हुआ तो ..? लोग दरवाजे से बाहर अपनी रिस्क पर निकलते हैं लौटे तो लौटे...ना लौटे तो घर में एक मातम और सही। हर कोई जैसे बारूद के ढेर पर जीता है। मौत जैसे पीछे-पीछे रेंगती है, स्वात की वादियों में...स्वात पाकिस्तान का एक खूबसूरत जिला। बेयकीनी के दौर में एक कोशिश ने सांस ली, जिसका नाम है मलाला... मलाला युसुफज़ई !!! ‘चलो किताबें और कलम उठाओ. ये हमारे सबसे ताकतवर हथियार हैं. एक बच्चा, एक शिक्षक, एक किताब और एक कलम ही दुनिया को बदल सकते हैं. शिक्षा ही एकमात्र हल है.’ ये मलाला के शब्द हैं.


विचार गोलियों से नहीं मरते
मलाला सिर्फ मलाला ही नहीं है, गुल मकई भी है। 'गुल मकई' वो लड़की है जिसने दुनिया को बताया कि उसके आसपास क्या घट रहा है? कितनी मुश्किलें हो रही हैं उसे अपना स्कूल जारी रखने में? गुल मकई ने अपने डर, अपनी इच्छाएं, अपनी जिद और अपनी जरूरतें लिखीं।
तालिबानी बस इतने में ही खौफ खा गए और उसके दिमाग को गोली से उड़ाने की कोशिश की। मगर उन्हें नहीं पता था कि विचार गोलियों से नहीं मरते इसलिए मलाला भी बच गई। उसका बचना जरूरी था...जरूरी था उसका लिखते रहना अपनी सरजमीं के लिए... और बाकी और लड़कियों के लिए...! उसका बचना इसलिए भी जरूरी था क्योंकि वो मलाला थी..जिन्दा रहने के लिए एक ही वजह काफी थी उसका मलाला होना...।
गुल मकई ने बहुत कुछ कहा और बहुत कुछ अनकहा रह गया, जो रह गया है उसके लिए सैकड़ों मलाला चाहिए और हर मलाला को स्कूल जाने का हक चाहिए। जिससे हर मलाला अपनी बात कह सके, ऐसी कितनी ही मलालायें हैं, जिनकी ख्वाहिशें हसरतें पैदा होने के पहले ही मिट्टी में दबा दी जाती है, कोई ख्वाहिश ऐसी हो जो मारी न जा सकें तो बदल दी जाती है, कुछ शर्तें लगा दी जाती हैं। आप भी सोचिए क्या शर्तों के घेरे में सपने सांस ले पाते हैं भला।
मलाला जानती है और हम भी...कि हर लड़की स्कूल जाने के लिए अपने भेजे पर गोली नहीं खा सकती, और खाना भी नहीं चाहिए। इसलिए मलाला की कोशिशें आज भी जारी हैं। नोबेल शांति समेत सैकड़ों पुरस्कार मलाला की झोली में हैं। मलाला एक नाम था, अब मलाला एक आवाज है, एक कोशिश है। हर उस लड़की के लिए जो पढ़ना चाहती है। हर उस लड़की के लिए जिसे पढ़ना चाहिए और हर लड़की को वास्तव में पढ़ना भी चाहिए।
जितनी बड़ी उतनी ही गंभीर बात
मलाला ने सिर्फ अपनी बात कही और इसे सब तक पहुंचाने के लिए यूएन ने 12 जुलाई को 'मलाला दिवस" के तौर पर मनाए जाने की घोषणा कर दी है। यह छोटी-सी नजर आने वाली बात कितनी बड़ी है, और जितनी बड़ी है उतनी ही गंभीर भी है। कितनी लड़कियां आज भी कभी परिवार, कभी गरीबी, कभी सुरक्षा के नाम पर दरवाजों के पीछे बंद कर दी जाती हैं। आज मलाला के नाम पर ढेरों फंड और योजनाएं चल रही हैं, जो लड़कियों की बेहतर शिक्षा के लिए काम कर रही हैं।
क्या इन सारी योजनाओं के चलते हर लड़की को उसका वो हकमिल रहा है, जो उसे मिलना चाहिए? या हिंदुस्तान को भी एक मलाला की जरूरत है, शायद एक नहीं कई मलालाओं की। मलाला दिवस तो बस एक बहाना भर है अपने आप को टटोलने का क्या हम अपनी बेटियों को वो मुस्तकबिल दे रहे हैं जिसकी वो हकदार हैं? क्या 'सेल्फी विद डॉटर" से भी आगे कोशिशें जारी हैं? हमारा देश, हमारी सरकार और इन सबसे भी पहले हम कितने जागरूक हैं अपनी बेटियों को लेकर...?
जरूरत है कोलाहल की
बेशक! चुप्पी तो टूटी है है, मगर अब तक सन्नााटा गया नहीं है, जरूरत है शोर की... कोलाहल की। मलाला वो पहली आवाज है जो हर लड़की को, हर हाल में उसका हक देने की बात कहती सुनाई देती है। मलाला हमें याद दिलाती है कि जब भी औरत ने कुछ कहा है सुनना ही पड़ा है सबको... पर क्या हर औरत, हर लड़की अपने मन की बात कह पाती है? नहीं...हजारों बार नहीं...इस अनकहे को सुने जाने की जरूरत है। हर बेटी को, हर स्त्री को उसकी हदें तोड़ने की जरूरत है। 
...बाकी अब मलाला दिवस तो हर साल आएगा, शुभकामनाएं! 

 08 जुलाई 2015 को नायिका, नई दुनिया में प्रकाशित.

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